Tuesday, November 15, 2011

परीक्षक मैं अगर होता


परीक्षक मैं अगर होता,तो सौ में सौ तुझे देता |
यहीं पर मैं नहीं रुकता,जरा सा और बढ लेता |
लिखी है जिस तरह कविता,हृदय की रोशनाई से,
अलग से चार सौ नम्बर,तुझे बोनस के दे देता |
           -०-
सतरों में चन्द आपने,क्या-क्या बयां किया |
लफ्जों में हालेदिल को,पिरो कर अयां किया |
चिलमन के साथ बैठ कर,दो लफ्ज क्या कहे,
खुशरगं सा जैसे यहां, मौसम खिला दिया |
           -०-
बूढा हुआ जो बाप तो, एक बोझ हो गया |
गुजरे हुए समय का, अजब सोच हो गया |
बैठा हुआ मकान के,  कोने में  आखिरी,
उसका वुजूद है तो,   मगर नापैद  हो गया |
         -०-
कल तक खड़े हुए थे जो,उंगली पकड़ के'राज'|
तन कर खड़े हुए हैं जमाने में अब वो  आज |
बच कर निकल रहे हैं वो,साये  से   बाप के,
पैरों पे क्या खड़े हुये, दुनिया अलग है  'राज' |
          -०-
बरगद की तरह छाया,लगती थी कभी उसकी |
अब बच के निकलते है,छाया से सभी उसकी |
आंखों के इशारों पर उसके जो  ठहरते   थे,-
आवाज अनसुनी सब, करते हैं  'राज' उसकी |
          -०-

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